एक लंबे अंतराल के बाद मुरादाबाद के प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं शिक्षाविद परम श्रद्धेय डॉ महेश दिवाकर जी से मिलना हुआ, उनके घर पर। 100 से अधिक पुस्तकों के प्रणेता डॉ दिवाकर जी अपने साधना कक्ष में विराजमान, लिखने-पढ़ने में मस्त। उनके चारों तरफ पुस्तकें, पत्रिकाएं अखबार पसरे हुए। कक्ष किताबों, सम्मान पत्रों से भरा हुआ। देदीप्यमान। खिल-खिलाता हुआ चेहरा, चमकती आँखें। उन्हें प्रणाम किया। वह बड़े प्रेम से बोले- बड़े दिनों बाद आए हो, अवनीश, सब कुशल तो है, लिखना-पढ़ना कैसा चल रहा है, आदि। पूर्व की भांति ही उपहारस्वरूप अपनी कई पुस्तकें मुझे दी। निशुल्क। मुझसे ही नहीं, कभी किसी और से भी पुस्तक के बदले कोई पैसा नहीं लिया; किसी को भी पुस्तक नहीं बेची। स्वयं पुस्तक छपवाकर, वह साहित्यप्रेमियों को निशुल्क पुस्तकें बांटते रहे। ऐसे विलक्षण साहित्य सेवा करने वाले शब्द साधकों से मिलना अपने आप में मेरे लिए एक बड़ी उपलब्धि है।