Dr Abnish Singh Chauhan (1979) is a bilingual poet, critic, translator and editor (Hindi and English). His significant books include Swami Vivekananda: Select Speeches, Speeches of Swami Vivekananda and Subhash Chandra Bose: A Comparative Study, King Lear : A Ctritical Study, Functional Skills in Language and Literature, Functional English, Writing Skills and The Fictional World of Arun Joshi: Paradigm Shift in Values. His deep interest in translation prompted him to translate thirty poems of B S Gautam Anurag under the title Burns Within from Hindi into English and some poems of Paddy Martin from English into Hindi. Besides Harivansh Rai Bachchan Yuva Geetkar Samman (2013) for his Hindi poetry collection Tukada Kagaz Ka from Uttar Pradesh Hindi Sansthan, Lucknow, U.P., he is the recipient of Pratham Kavita Samman (2011) from Kavita Kosh (www.kavitakosh.org), Book of the Year Award (2012) from the Think Club, Michigan, USA, Srajnatmak Sahitya Puraskar (2013) from Rajasthan Patrika, Jaipur, Rajasthan, Navankur Puraskar (2014) from Abhivyakti Vishwam, Sharjah, UAE, etc. He also edits Creation and Criticism, International Journal of Higher Education and Research and Poorvabhas. He resides at F-338, Prem Nagar, Linepar, Majhola, Moradabad-244001 (UP) India and can be contacted at abnishsinghchauhan@gmail.com.
Dear Mr. Chauhan,
I am delighted to see your mail depicting the "Ahmadabad International Literature Event 2016" and your participation on behalf of the University.
My heartiest congratulations on your inspiring participation with many leading Literary personalities in the event.
My support and arrangements would ever be there for to bring more and more honor to our university.
I am so proud of you for setting your sight high and making every efforts to accomplish the task
You are a valued member of our team and I truly appreciate your contribution once again
Wishing you all the Best.
- Shri Ravi Pachamoothoo Chancellor, SRM University Delhi-NCR, Sonepat, Haryana
''Meet this silent warrior, a grass root litterateur, super star bilingual author, a highly respected and popular professor of English whose books have been prescribed in the syllabus of many Universities and who earns handsome amount of royalty annually from his books from long back, an unassuming 38 year old Dr. अवनीश सिंह चौहान (Abnish Singh Chauhan) - a very resourceful person with strong network in literary world around the globe - a man to look upto for any assistance.''
"Dear Dr. Abnish ji, my heartiest congratulations to you for your inspiring participation in AILF2016, Ahemadabad. It is ur great achievement and a rare honour for us and SRMU that u represented there well and interacted with dignified dignitaries of the world. I pray to Almighty God for u that may u avail more and more opportunities for such worldwide literary functions. With deepest blessings and best wishes."
- Dr P M Gaur
Prof & HOD- Hindi
SRM University, Sonepat, Haryana
संग्रह के भीतरी अवलोकनों के बीच-बीच में एक पाठक की उत्कंठा यह जानने की अवश्य रहती है कि यह कवि अपने संग्रह के बाहर कैसा होगा। मेरा मानना है कि समाज का आदर्श वही कवि बनता है जिसका व्यक्तित्व और कृतित्व पारदर्शी हो। व्यक्ति के अंतर्वाह्य जगत को उसकी प्रतिभा ही संतुलित करती है। कहा जाता है कि प्रतिभा व्यक्ति में जन्म के साथ आती है। और परिवेश संस्कारी हो तो साधनाएँ बचपन से ही शुरू हो जाती हैं। सन् 1893 में शिकागो (अमेरिका) में युवा विवेकानंद ने उद्भुत भाषण देकर विश्व में हिन्दुत्व का परचम लहरा दिया था। उन्तीस वर्षीय पी॰बी॰ शैली ने अज्ञात लेखक के रूप में ईश्वर के विरुद्ध हो जाने को आवश्यक मानते हुए एक किताब लिखी और छपवा डाली। महत्वपूर्ण प्रसंग यह है कि उस कृति की ख्याति ने उन्हें ऑक्सफोर्ड से निष्कासित करवा दिया। 15 वर्षीय नेपाली अपने पहले ही कवि सम्मेलन से विख्यात हो गये थे। मंच पर उपस्थित कथा-सम्राट प्रेमचंद्र ने कहा था- ‘बरखुरदार, कविता क्या पेट से सीखकर आए हो।’ यह सब प्रतिभा के ‘चरैवेति’ प्रभाव के अंतर्गत है। जैसे जल-समूह की गत्यात्मक शक्ति धरा फोड़ लेती है, वैसे ही प्रतिभा मील-स्तम्भ बनाती जाती है और आगे चलती चली जाती है। एक और सूत्र कथन याद आ रहा है। डॉ शन्तिसुमन के गीतों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कभी डॉ विजेन्द्र नारायण सिंह ने कहा था- ‘प्रतिभा की एक पहचान यह है कि वह विकसनशील होती है।’ हमारे प्रिय अवनीश ऐसे ही प्रतिभाशाली कवि-लेखक हैं। एम॰ फिल॰ (अंग्रेज़ी) करते ही मात्र 24 साल की उम्र में एक अंग्रेज़ी किताब (स्वामी विवेकानंद: सिलेक्ट स्पीचेज) लिख डाली, जो परास्नातक पाठ्यक्रम में कई विश्वविद्यालयों में पढ़ी-पढ़ाई गयी। एक विश्वविद्यालय में कार्यरत् अंग्रेजी- प्राध्यापक अवनीश चैहान हिन्दी के क्षेत्र में आए तो मात्र 6-7 साल की अवधि में ही जो भी गद्य-गीत लेखन और संपादन कार्य किया, वह सराहा गया। आजकल वे अनेक छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में छप रहे हैं। गत 2-3 वर्षों में इण्टरनेट पर ‘पूर्वाभास’ जैसी पत्रिका निकालकर उन्होंने विशेष ख्याति अर्जित की है। हर्ष का विषय ही है कि इस कवि की कार्यशैली विश्वस्तर पर भी सम्मानित/ पुरस्कृत हो चुकी है। साहित्यिक दौड़ में अभी तो इस धवक ने दशक भी पार नहीं किया किन्तु उसकी कविता का यह वामन रूप मेरे जैसे उम्रदराजों को चकित कर देने के लिए काफी है। इस अवांतर प्रसंग के बाद हम पुनः संग्रह के भीतरी लोक में लौटते हैं।