बचपन की सुनहरी यादों को समेटे यह गीत बचपन के लौटने, जोकि संभव नहीं है, की अभिलाषा लिए उन सुखद स्मृतियों को अपने ढंग से पुनः जीने की कोशिश करता है और विचार करता है कि किस प्रकार से "कंकरीट के मकड़जाल ने फांस लिया है सादा जीवन।" आप भी देखिये--
अब न अजुध्या मन में बसती
अब न बगाइच वाला वह मन
कंकरीट के मकड़जाल ने
फांस लिया है सादा जीवन
कभी पकड़ना अपनी छाया
कभी छाँह से डर कर रहना
कभी चाँद-तारों को चाहें
कभी धूप के मोती चुनना
रस था आमों के झगड़ों में
'कुट्टी' में भी था अपनापन
छोटेपन के बाल-इशारे
माँ समझे या समझे बापू
जिनकी ओली ही लगती थी
सबसे ऊंचा सुन्दर टापू
गाँव किनारे जखई बाबा
का वह चौपड़ था सिंहासन
धुक-धुक-धुक-धुक जी करता है
कितने फंदे, कितने धंधे
चढ़ी जवानी देखे सपना
बोझिल झुके हुए हैं कंधे
मन ही मन यह चाहूँ मुझमें
लौटे फिर से मेरा बचपन।
(यह गीत 'टुकड़ा कागज़ का' नवगीत संग्रह में प्रकाशित हो चुका है)
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