कोरोनाकाल में देश-परदेश में फंसे बदहाल, संघर्षरत साथियों को समर्पित एक गीत :—
समय की धार ही तो है
किया जिसने विखंडित घर
न भर पाती हमारे
प्यार की गगरी
पिता हैं गाँव
तो हम हो गए शहरी
ग़रीबी में जुड़े थे सब
तरक्की ने किया बेघर
खुशी थी तब
गली की धूल होने में
उमर खपती यहाँ
अनुकूल होने में
मुखौटों पर हँसी चिपकी
कि सुविधा संग मिलता डर
पिता की ज़िंदगी थी
कार्यशाला-सी
जहाँ निर्माण में थे-
स्वप्न, श्रम, खाँसी
कि रचनाकार असली वे
कि हम तो बस अजायबघर
बुढ़ाए दिन
लगे साँसें गवाने में
शहर से हम भिडे़
सर्विस बचाने में
कहाँ बदलाव ले आया
शहर है या कि है अजगर।
5012 Views
Comments
()
Add new commentAdd new reply
Cancel
Send reply
Send comment
Load more