डॉ राजेन्द्र गौतम जी ने अपनी फेसबुक वाल पर नचिकेता जी की टिप्पणी, जोकि पूर्वाभास पर प्रकाशित है, पर प्रतिक्रियाएं देने का आग्रह किया है यह कहते हुए कि "नवगीत आलोचक नचिकेता ने मेरे एक गीत को घोर प्रगतिविरोधी बताया है और सिद्ध किया है कि मैं सिर्फ फूल-तितलियों पर गीत लिखने का हिमायती हूँ; भूख, गरीबी या शोषण से कविता को अनुपस्थित रखना चाहता हूँ। नचिकेता जी बड़े आलोचक हैं शायद सच ही कह रहे होंगे। फिर भी आप सब भी बताएं कि क्या यह सही है?"
नचिकेता जी की टिप्पणी यहाँ है :
“राजेन्द्र गौतम तो खुले आम घोषित करते हैं कि फूल खिले हैं,/ तितली नाचे,/ आओ इन पर गीत लिखें हम/ भूख, गरीबी या शोषण से/ कविता-रानी को क्या लेना।” वामपंथ को गुमराही के अँधेरे में ढकेलने वाले हिंदी के शिखर आलोचक नामवर सिंह भी मानते हैं कि गीत (लिरिक) में आप दुख, दर्द, वियोग की वेदना को और जीवन-दर्शन को अच्छी तरह व्यक्त कर सकते हैं और मिलनोच्छावास की भावना को अच्छी तरह व्यक्त कर सकते हैं। किंतु जब उसमें गरीबी, उत्पीड़न और आक्रोश की बात की जाती है तो उसकी गेयता नष्ट हो जाती है और वह लिरिक के बजाय ‘सांग’ बन जाता है।” राजेन्द्र गौतम दिल्लीवासी हैं। उन्हें नामवर सिंह की सलाह माननी ही चाहिए, इसलिए वह भी अनुशंषित कर देते हैं कि कविता-रानी को भूख, गरीबी या शोषण से कोई वास्ता नहीं रखना चाहिए। उसे अपनी कविता में तितलियों को लुभाने वाले सुन्दर फूलों के सौन्दर्य-चित्राण जैसे अति महत्त्वपूर्ण कार्य ही करना चाहिए।
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विशेष आग्रह : टिप्पणी पढ़कर नचिकेता जी की पूर्वाभास पर प्रकाशित समीक्षा भी पढ़ लेंगे।
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राजेन्द्र गौतम जी का नवगीत :
फूल खिले हैं तितली नाचे
आओ इन पर गीत लिखें हम
भूख, गरीबी या शोषण से
कविता-रानी को क्या लेना
महानगर की चौड़ी सड़कें
इन पर बंदर-नाच दिखाएं
अपनी उत्सव-संध्याओं में
भाड़ा दे कर भाँड बुलाएं
हम हैं संस्कृति के रखवाले
इसे रखेंगे शो-केसों में
मूढ़-गंवारों की चीखों से
शाश्वत वाणी को क्या लेना
लिए लुकाठी रहा घूमता
गली-गली सिर-फिरा कबीरा
दो कोड़ी की साख नहीं थी
कैसे उसको मिलता हीरा
लखटकिया-- छंदों का स्वागत
राजसभा के द्वार करेंगे
निपट निराले तेरे स्वर से
इस ‘रजधनी’ को क्या लेना।
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राजेन्द्र गौतम जी की पोस्ट पर टिप्पणियां:
- "अब उनकी (नचिकेता) उम्र हो गयी है। कुछ दिन पहले बीमार भी थे। लेकिन उन्हें शुद्ध आलोचक कहना समझना ठीक नहीं।" - भारतेंदु मिश्र
- "इस विवाद की सच्चाई जो भी हो। क्यों नचिकेता ऐसा सोचते हैं इसके पीछे उनकी मूल्यदृष्टि और तर्क हो सकते हैं। लेकिन राजेंद्र गौतम जी सुना है आप भी तो आलोचक, समालोचक क्या-क्या हैं? अपनी कविता के चरित्र और अपने कवि के सच को तो आप भी बखूबी जानते ही होंगे। इसमें आपा खोने जैसी तो कोई बात नहीं है। आपसी बातचीत से एक दूसरे को ठीक से समझ या समझा भी सकेंगे आप लोग।" - राम सेंगर
- "राम सेंगर जी, मैंने जो लिखा उसमे आपा खोने जैसा तो कुछ नहीं है। एक जिज्ञासा मात्र सामने रखी है, ताकि उनका आरोप सही है तो अपने में सुधार कर लूँ। नचिकेता जी का लेख शायद आपने पूर्वाभास में पढ़ा हो।" - डॉ राजेन्द्र गौतम
- आदरणीय गौतम जी, गीत के बंध कुछ भी कहते हों, किन्तु इस गीत का मुखड़ा ठीक नहीं है। मुखड़ा जिस सुखद एवं सुगन्धित वातावरण में गीत लिखने की बात करता है, उसमें न तो कहीं पर व्यंग्य दिखाई देता है और न ही प्रतिरोध का स्वर सुनाई पड़ता है। यह बात आलोचक होने के नाते आप भी समझते होंगे? यदि नहीं भी समझते हैं, तो एक आलोचक को दूसरे आलोचक के कहे को किस प्रकार से लेना चाहिए यह तो आप जानते ही होंगे? हाँ, नचिकेता जी की यह टिप्पणी पूर्वाभास पर प्रकाशित है, किस सन्दर्भ में? पढी जा सकती है : http://www.poorvabhas.in/2016/08/blog-post_70.html. - अवनीश सिंह चौहान
- "अवनीश सिंह चौहान जी, अंग्रेजी के ही सही पर हैं तो आप भी भाषा के और साहित्य के ही अध्यापक. इसके बावजूद आप यह लिख रहे हैं , यह देख कर आश्चर्य हुआ. भाषा साहित्य में इतने इकहरे रूप में क्या कभी काम करती है जिस रूप में आप देख रहे हैं. 'कविता' की अपेक्षा अकेला 'कवितारानी' शब्द ही पूरे सन्दर्भ को व्यंग्यात्मक बना देता है, लहजा ही कविता में अर्थ-निर्धारण करता है. मेरा मंतव्य वह होता जिसका निष्कर्ष आप ने निकाला है अर्थात मैं सुखद एवं सुगन्धित वातावरण में गीत लिखने की बात कर रहाहूँ तब मैं इतना ही लिखता: ''फूल खिले हैं,/ तितली नाचे,/ आओ इन पर गीत लिखें हम'' कोई भी लेखक यह लिखने का रिस्क नहीं ले सकता "भूख, गरीबी या शोषण से/ कविता-रानी को क्या लेना।” ज़रा फैज़ की कविता 'मौजू-ए-सुखन' पढ़िए और निर्णय लीजिये कि वे कविता से क्या चाहते हैं? गीत की टेक संकेतक होती है व्याख्यायक नहीं. मूल संकेत उस में मौजूद है. आपकी बात को ही एक मिनट के लिए सही मान लें तो मुखड़ा एक जिज्ञासा तो पैदा करता ही है कि कवि क्या कहने जा रहा है? क्या मानलें कि नचिकेता जी ने पूरा गीत पढ़ा ही नहीं? यदि पूरा गीत पढ़े बिना वे अपना मंतव्य देते हैं तो यह प्रबुद्ध आलोचक की विशेषता नहीं है और यदि पूरा गीत पढ़ कर यह लिखा गया है तो यह जानबूझ कर पाठक को भरमाने के लिए लिखा गया है. यहाँ दूसरी ही सम्भावना अधिक है और आलोचक के पूर्वाग्रह की परिचायक है. दिल्ली में रहने के कारण उनका मुझे नामवर सिंह की सलाह मानने का निष्कर्ष भी उनके मन में बैठी विषाक्तता का परिचायक है. ऐसे में तटस्थ आलोचना की अपेक्षा व्यर्थ है."- डॉ राजेंद्र गौतम
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अब प्रश्न यह है कि नचिकेता जी द्वारा उद्धृत पंक्तियाँ 'क्या उनके मन में बैठी विषाक्तता का परिचायक है?' और 'क्या गौतम जी ने जो स्पष्टीकरण और तर्क दिया है, वह सही है? यदि हाँ, तो कैसे?
विशेष आग्रह : कृपया आलोचना का जवाब आलोचना में दें। व्यक्तिगत भावनाओं को इस चर्चा से बाहर रखेंगे।
फेसबुक पर टिप्पणियाँ:
- "उनकी कविता पर कुछ न कहो, वरना 'आंटी पुलिस बुला लेगी' - हरेप्रकाश उपाध्याय (लखनऊ)
- डॉराजेन्द्र गौतम: वाह, वाह , क्या कहने. सुंदर कमेंट . आभारी हूँ --Hareprakash Upadhyay जी.
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- रमाकांत (रायबरेली): राजेन्द्र गौतम जी, अगर नचिकेता जी की टिप्पड़ी को ध्यान से पढ़ा जाए तो ऐसा लगता है कि आपके रचनाकर्म और व्यक्तित्व पर उन्होंने वही व्यंगात्मक लहजा अपनाया है जो आपने वस्तुतः अपने गीत में अपनाया है। कविता व्यंगात्मक हो सकती है, पर दृष्टि इतनी भी न खो जाए कि सृजन और निर्माण के तत्व ही न दिखाई दें। भूख, गरीबी और शोषण के खिलाफ आप क्या कहते जान पड़ते हैं इस गीत में?आपकी प्रतिरोधी आवाज कहां है? कवितारानी को ही तो आपने जिस तिस तरह से पूरे गीत में महिमा मंडित किया है! अगर कवितारानी के पक्ष में आप नहीं हैं, तो अन्याय, अत्याचार, शोषण का पक्ष क्या आप रख सके हैं? क्या आपका व्यंग्य यहां अपने को असमर्थ पा रहा है? क्या जरूरत थी पूरे गीत को व्यंग्यात्मक बनाने की? आखिर कोई क्यों न माने कि आप फूल और तितली पर ही गीत लिखने का आह्वान कर रहे हैं? प्रारम्भ से लेकर अंत तक कहीं भी आपकी भूख-गरीबी ने करवट नहीं बदली! आपने जिस लहजे की बात की है, संभवतः वह लहजा नचिकेता जी को नागवार गुजरा होगा, क्योंकि वे शब्दों, लहजों और मंशा को किसी से भी अच्छा समझने की क्षमता रखते हैं। इस गीत का निहितार्थ यह भी हो सकता है कि हम कैसे भूख, गरीबी और शोषण को फैशन की तरह इस्तेमाल कर प्रगतिशील और प्रतिरोधी अपने को सिद्ध कर ले जाते हैं। पूरे गीत में भूख, गरीबी, शोषण को राजेन्द्र गौतम जी ने कौन-सा अर्थ देना चाहा है? यदि आशा कुछ बची ही नहीं, तो फूल और तितली पर कविता लिखने का बुलावा गीतकार का सोचा-समझा निर्णय होना ही चाहिए! क्या गीत यह अर्थ निर्धारण नहीं करता कि भूख गरीबी और प्रतिरोधी स्वरों की ऐसी-तैसी हो रही है, तो अच्छा है फूल-तितली पर गीत लिखना, क्योंकि कविता रानी से तो हमें मधुर सम्बन्ध बनाए ही रखना है। हां, आप रिस्क नहीं ले रहे हैं। आप चलन में हैं।आजकल ऐसी ही प्रगतिशीलता चलन में जो है! संक्षेप में इतना ही आपने मुखड़े को सही तरीके से नहीं कहा है। मुखड़े का स्वर, लहजा निश्चित रूप से प्रतिरोधी नहीं है, जबकि मुखड़ा ही सारे शरीर की जान होता है। कवितारानी तो आपका ही शब्द है। क्या आपने इस शब्द के आगे समर्पण नहीं कर दिया है? और हां, जो लोग नचिकेता को बूढ़ा, मन्द बुद्धि बता रहे हैं, वे यह जान लें कि वे अब भी होशोहवास में हैं और इतना काम कर रहे हैं जो वे शायद कभी न कर पाएं। समीक्षा पर असहमति होना अच्छा है पर किसी को विषाक्त बता देना निहायत अनुचित है।
- डॉ राजेन्द्र गौतम: पूर्वाभास में मेरी आज की टिपण्णी भी देखें।
- अवनीश सिंह चौहान राजेंद्र गौतम जी ने इस नवगीत पर पूर्वाभास में अपना पक्ष इस प्रकार रखा है : "नवगीत की प्रगतिशील भूमिका को नजरंदाज किया ही नहीं जा सकता. पर कुछ व्यक्तियों को लक्ष्य बना कर उनके गीतों का तोड़-मरोड़ कर जो अनर्थ करते हैं, उसका लक्ष्य अपनी नापसंदगी वाले लेखकों को “व्यक्तिवादी, अस्तित्ववादी और आधुनिकतावादी सिद्ध करना होता है. इसका एक मजेदार उदहारण इस लेख में देखा जा सकता है. उन्होंने मेरे गीत का एक अंश उद्धृत कर उसकी मनमानी व्याख्या कर डाली है. जानबूझ कर अर्थ का अनर्थ करना इसी को कहते हैं. पूरा गीत उद्धृत करते तो उनकी कलई खुल जाती, गीत का सिर्फ मुखड़ा उद्धृत किया है. एक दसवीं क्लास का बच्चा भी इस व्यंग्य को समझ जायेगा कि भूख, गरीबी या शोषण को नजरंदाज कर सिर्फ फूलों और तितलियों की बात करने वाले गीतकारों और शोषक सत्ता की दुरभिसंधि की खबर इस गीत में ली गयी है. यदि यह बात नचिकेता जी को समझ में नहीं आई है तो वे दया के पात्र हैं और यदि समझने के बाद जानबूझ कर वे यह टिपण्णी कर रहे हैं तो उनकी चालाकी साहित्यिक बेईमानी कई जाएगी. नवगीत का यही दुर्भाग्य है कि या तो उसे तटस्थ आलोचक नहीं मिले हैं और यदि कही तटस्थ आलोचना हुई भी तो अपने को पुरोधा के रूप में स्थापित न देख कर कुछ नवगीतकार और नवगीत-आलोचक ऐसी ही साहित्यिक बेईमानी पर उतर आते हैं. नवगीत को दरकार है ऐसे आलोचक की जो आत्म-मुग्धता से मुक्त हो."
- अवनीश सिंह चौहान: यहाँ पर, गौतम जी, आपके नवगीत पर बात चल रही है, उसी पर ध्यान केंद्रित करेंगे।
- डॉ राजेन्द्र गौतम: सारा मुद्दा परस्पर जुड़ा है। पाठकों के लिए पूरे सन्दर्भ को जानना जरुरी होगा। जो अनावश्यक समझेंगे वे इसे इगनोर कर ही देंगे।
- अवनीश सिंह चौहान: आपकी अपनी फेसबुक वाल से लेकर मेरी वाल तक चर्चा आपके गीत पर हो रही है। चूंकि आपकी पीड़ा को हम समझते हैं, इसलिए यह चर्चा यहाँ की जा रही है। इसलिए बड़ी विनम्रता से आपसे कह रहा हूँ कि आप इस चर्चा को दूसरी ओर नहीं मोड़ेंगे और इसीलिये आपकी इस पोस्ट से सम्बन्ध न रखने वाली सभी पोस्ट को मुझे हटाना पड़ेगा। हिंदी के (पूर्व) अध्यापक होने के नाते आपको यह बात समझ में आनी ही चाहिए।
- डॉ राजेन्द्र गौतम: भाई, मैं पूर्व अध्यापक नहीं हूँ. किसी ने गलत सूचना दी है. आपने पूरी बहस "नचिकेता जी की टिप्पणी, जो कि पूर्वाभास पर प्रकाशित है" के सन्दर्भ में छेड़ी है. ये आपके ही शब्द हैं. लेख के सन्दर्भ में आपका मेरी टिपण्णी को हटाना बहस को तटस्थ कहाँ रहने देगा भाई. यह तो वही कर्म है न, जिसका मैं विरोध कर रहा हूँ. जैसे नचिकेता जीने मेरे गीत का सिर काट कर अनर्थ किया है, वैसा ही आप भी करना चाहते है. ठीक है फिर चलाते रहिये एक पक्षपातपूर्ण बहस. "बने हैं अहल-ए-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी/ किसे वकील करें, किस से मुंसिफ़ी चाहें."
- अवनीश सिंह चौहान: यह बहस आपकी फेसबुक वाल पर ("नवगीत आलोचक नचिकेता ने मेरे एक गीत को घोर प्रगतिविरोधी बताया है और सिद्ध किया है कि मैं सिर्फ फूल-तितलियों पर गीत लिखने का हिमायती हूँ, भूख, गरीबी या शोषण से कविता को अनुपस्थित रखना चाहता हूँ. नचिकेता जी बड़े आलोचक हैं शायद सच ही कह रहे होंगे") आपकी पोस्ट को संज्ञान में लेते हुए प्रारम्भ की गयी है। इसलिए यह बहस आपके नवगीत पर केंद्रित है। अब आप बहस को छोड़ना क्यों चाहते है, अध्यापक जी (मैं भी अध्यापक हूँ - आप मानते भी हैं?), मेरी समझ मैं नहीं आता ?
- डॉ राजेन्द्र गौतम: मैं बहस छोड़ नहीं रहा हूँ. और मुझे पकडे रख कर भी क्या करना है. मुझे खुद defend करने की ज़रूरत क्या है? मैंने तो अपनी बात अपनी वाल पर कह ही दी. आपने भी पाठकों से मत मांग लिया.अब आने दीजिये पाठकों के मत. मुझे वे शिरोधार्य हैं. मेरी वाल भी पर अनेक आयें है. वे मैंने तो नहीं लिखवाएं है. उन्हें आप कितना honour करते है यह आप जाने. आपकी वाल के मतदाताओं का मैं तो सम्मान ही करता हूँ, चाहे कितनी कम प्रतिक्रियाएं आई हों. मेरी आपत्ति सिर्फ सेंसरशिप पर थी. मेरी टिपण्णी आकाश से नहीं टपकी थी, वह एक लेख की मान्यताओं के सन्दर्भ में थी. लेकिन अपनी वाल के आप मालिक हैं जैसा चाहे करें. और मुझे आत्मरक्षा में बयान देने की जरुरत नहीं है, इसे पलायन न समझें.
- अवनीश सिंह चौहान: गौतमजी, आपके कहे - 'ठीक है फिर चलाते रहिये एक पक्षपातपूर्ण बहस' का क्या अर्थ निकाला जाय? जो अर्थ निकाला गया आपके सामने है। "मुझे खुद defend करने की ज़रूरत क्या है?" और 'मुझे आत्मरक्षा में बयान देने की जरुरत नहीं है' - जब जरूरी नहीं था तो अपनी वाल पर 'मत ' मांगने (आपके फ्रेंड्स और फॉलोवर्स का भरपूर सम्मान करता हूँ, पर उनमें से कितने लोग तटस्थ हैं यह भी जानना होगा ) की क्या जरूरत थी ? क्या तब आपको यह बात ध्यान नहीं आयी? जहाँ तक इस पोस्ट पर प्रतिक्रियाओं का सवाल है, तो मैंने पहले ही आग्रह कर दिया है कि 'कृपया आलोचना का जवाब आलोचना में दें। व्यक्तिगत भावनाओं को इस चर्चा से बाहर रखेंगे।' जाहिर है जो लोग इस विमर्श की समझ और सच बोलने का साहस रखते होंगे, वही यहाँ आएंगे; यदि नहीं भी आएंगे तब चिंता की बात नहीं है क्योंकि विपक्ष का एक मत भी महत्वपूर्ण होता है।
- डॉ राजेन्द्र गौतम: यह तर्कश्रृंखला अंतहीन निरर्थकता की ओर जा रही है. अब यही देखिये. आपने लिखा है ; "आपके फ्रेंड्स और फॉलोवर्स का भरपूर सम्मान करता हूँ, पर उनमें से कितने लोग तटस्थ हैं यह भी जानना होगा! " फ्रेंड्स और फॉलोवर्स को अतटस्थ भी बता रहे है और उनका सम्मान भी कर रहे हैं. मैं तो आपके फ्रेंड्स और फॉलोवर्स को तटस्थ ही मान रहा हूँ. मत तो इसीलिए माँगा था कि कहीं मैं गलत न होऊं या कहीं नचिकेता जी ने ही कुछ गलत न लिख दिया हो. आपने भी यही किया है कि पाठक बताएं कि सही क्या है. अब सब उन्ही के हवाले. हमें उनका सम्मान करना चाहिए।
- अवनीश सिंह चौहान: 'अतटस्थ' शब्द मेरी टिप्पणी में कहाँ लिखा है? कहाँ मेरी टिप्पणी में 'सम्मान' की कमी है? आश्चर्य होता है कि भाषा और साहित्य के अध्यापक होकर भी आप इस निष्कर्ष पर पहुँच पाए? साथ ही, पाठकों पर इतना ही भरोसा होता तो इस प्रकार से निरर्थक बातों में इस बहस को न उलझाते। मुद्दे की बात करते। बेहतर होता कि आप राम सेंगर जी एवं रमाकांत जी की टिप्पणियों को संज्ञान में लेते? और तब आप अपना तर्क भी रख सकते थे (अब भी रख सकते हैं यदि हो तो)? आपको तो पता ही है कि हम लोग पाठकों को पलकों पर बिठाकर रखते हैं?
- डॉ राजेन्द्र गौतम: भाई, मैंने पहले ही कहा है कि निरर्थक तर्क जाल में बातों को उलझा रहे है? "उनमें से कितने लोग तटस्थ हैं यह भी जानना होगा" काअनुवाद 'अतटस्थ' ही होगा न! मैंने पाठकों के भरोसे ही अपनी बात उनके सामने रखी है, रामसेंगर जो को मैं जवाब दे चुका हूँ. रमाकांत जी अपना मत रखने के लिए स्वतंत्र हैं, जरूरी नहीं कि मैं उनसे सहमत होऊं. मेरा मत अनेक टिप्पणियों में सामने आ चुका है. अलग और कुछ कहने की जरुरत नहीं है. मैं उन्हें अपनी बात मानने के लिए बाध्य नहीं कर सकता. आपकी तटस्थता का तो यह हाल है कि मेरी वाल पर आयीं लगभग पचास टिप्पणियों में से आपने अपने अनुकूल 3-4 चुन ली.. मैं फिर कह रहाहूँ, यह बहस मेरे और आपके बीच में क्यों. पाठकोंकी रायआपने भी मांगली, मैंने भी मांग ली. मुझे अपनी कविता की व्याख्या खुद करने की जरूरत नहीं. इसीलिए मुझे कुछ कहने की जरुरत नहीं है.
- अवनीश सिंह चौहान: आपा क्यों खोते है, गौतम जी। अब आपको तर्क भी कुतर्क लगने लगे और मेरी तटस्थता का 'हाल' बताने की जरूरत पड़ गयी? इस पोस्ट में मैंने आपका मत भी रखा और आपके कुछ पाठकों का भी। अब आप कहते हैं कि 'यह बहस मेरे और आपके बीच में क्यों?' तब आपको क्या जरूरत थी यह सब करने की?
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- रमाकांत (रायबरेली): आप अपने गीत को प्रगतिशील कहने पर क्यों इतना जोर दे रहे हैं राजेन्द्र गौतम जी? हां मुर्दा प्रगतिशीलता के शव को जरूर सजाकर आप रुदाली गा रहे हैं। अब मुर्दा या दिखावटी प्रगतिशीलता का सिर काटो या पैर क्या फर्क पड़ता है। अच्छा है नचिकेता जी ने सिर काटकर उसके मनो-मस्तिष्क की जांच पड़ताल कर ली। पता नहीं आप अपने गीत को प्रतिरोध की किस श्रेणी में रख रहे हो! मैं फिर यह बात कहना चाहूंगा कि यह गीत निश्चित रूप से प्रतिरोधी नहीं है। प्रतिरोधी साहित्य प्रतिरोध करता दिखाई देता है। गीत-नवगीत में प्रतिरोध के नाम पर यत्र-तत्र ऐसे ही झूठे, मन-गढ़न्त और मृतप्राय प्रतिरोध के शव जन-पक्ष पर अपनी दावेदारी प्रस्तुत कर रहे हैं। राजेन्द्र गौतम जी आपका तो विशद अध्ययन है गीत नवगीत पर। नचिकेता को दोष देने के बजाय क्या आप बतायेंगे कि कितने नवगीतकार जनपक्षों को अपने गीतों में पूरी समझ और समग्रता से उठा पा रहे हैं? इन गीतकारों की वैचारिकी इतनी पुअर है कि हर गीत को आप खारिज कर दो। इन खारिज करने योग्य गीतकारों, नवगीतकारों में कुछ कथित बड़ों को भी शामिल करना चाहूंगा। मैं गीत-नवगीत में इसे संकट की तरह देखता हूं। कृपया अपने इस गीत को प्रगतिशील और प्रतिरोधी न कहें। क्योंकि इसमें कहीं से भी कोई प्रतिरोधी आहट नहीं आ रही है। यह हो सकता है कि आपके पक्ष में ज्यादा लोग आ जाएं पर यह आपकी विजय की निशानी नहीं होगी। साहित्य में तो अल्पमत को ही जीवन्त और सच्चा मान लेने में समझदारी दिखाई देती है। आपकी नचिकेता से अनबन हो सकती है, पर उनके विश्लेषणों, संकेतों को झुठलाया नहीं जा सकता। जनपक्ष की उनको व्यापक समझ है। हो सकता है कहीं उनसे चूक हो रही हो, पर आप पहले अपने गीतकर्म को भी समझ लें। कई बार जो हम कहना चाहते हैं सही तरीके से नहीं कह पाते। अक्सर यह हमारी वैचारिक प्रतिबद्धता की कमी की वजह से भी होता है और शिल्पगत समस्या की वजह से भी। हमें पता है कि गीत-नवगीत में गुट बने हुए हैं। सामन्ती सोच वाले मठाधीशों का प्रभुत्व है यहां। ये जिसको चाहें बढ़ाएं जिसको चाहें घटाएं। निश्चित रूप से आपका गुट बड़ा है और नचिकेता का छोटा। इसलिए कृपया बहुमत पर न जाएं। यथास्थितिवादी और वर्चस्ववादी यही चाहते हैं कि वे जन पक्ष के भी पैरोकार बन कर असली प्रतिरोध को दबा दें। आपसे निवेदन है कि कृपया इसे व्यक्तिगत न लें और गीत-नवगीत के हक में इस चर्चा को व्यापक बनाएं। अपनी कमियों कमजोरियों को देखने में अहमन्यता आड़े नहीं आनी चाहिए।अवनीश जी को मैं जानता हूं। मुझे लगता है कि वे आपके गीत को समझने की योग्यता रखते हैं। वे उन कुछ लोगों में हैं जो गीत और गीतकारों के पाखंडी चरित्र पर बारीक नजर रखते हैं। कृपया आप बहस को व्यक्तिकेन्द्रित न बनाकर गीत केन्द्रित बनाएं। आप जैसे काबिल गीतकार से हम यही उम्मीद रखते हैं।और हां, नचिकेता पर जो लोग गन्दा कमेंट कर रहे हैं मैं फिर कहना चाहूंगा कि वे न तो नचिकेता को जानते हैं न ही उनके रचनाकर्म को। गीत-नवगीत को सुधारने-संवारने और दिशा देने में नचिकेता का बहुत बड़ा योगदान है। उनके बिना कोई भी गीत-कथा अधूरी ही मानी जाएगी।
- Rajendra Mishra: समरथ को नहिं दोष गुसांई। दोनो ही लोग धुरंधर हैं।
- अवनीश सिंह चौहान: बहस अपनी-अपनी में शामिल होने के लिए आप सभी महानुभावों, मित्रों, सहृदयों का हार्दिक आभार।