गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर हैं– 'गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:।' यह बात कई बार हमारे लोक-व्यवहार में सुनने-सुनाने को मिल जाती है। तात्पर्य यह कि शिष्य की अपने गुरु में आस्था इतनी गहरी हो, विश्वास इतना प्रबल हो कि वह उसे मनुष्यरूप में साक्षात ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर माने। 'मानना' एक साधना है! 'न मानना' भी एक साधना है! किन्तु, दोनों में अन्तर भी है, वैसा ही अन्तर जैसा एक आस्तिक और नास्तिक में होता है। इसलिए आज संसार में सारा झंझट मानने और न मानने का ही है। 'मानो तो ईश्वर, न मानो तो पत्थर।' इस तरह से मानना एक व्यक्तिगत भाव है, समष्टिगत कतई नहीं। उदाहरण के तौर पर देंखें कि यदि किसी पुत्र का अपनी माँ के लिए भाव यह है–
उसको नहीं देखा हमने कभी,
पर इसकी जरूरत क्या होगी।
ऐ माँ तेरी सूरत से अलग,
भगवान की सूरत क्या होगी। (फिल्म दादी माँ से)
यानी कि उसकी माँ की सूरत सबके लिए भगवान की सूरत थोड़े ही हो जाएगी! ऐसे ही यदि किसी शिष्य का अपने सद्गुरु में ब्रह्मा-विष्णु-महेश का भाव हो तो उसका सदगुरु सबके लिए ब्रह्मा-विष्णु-महेश थोड़े ही हो जाएगा! यह तो शिष्य का अपना भाव है, निज विश्वास है, निज धर्म है। निज भाव जितना सशक्त होगा, निज विश्वास जितना अडिग होगा और निज धर्म जितना पवित्र होगा, उतना ही अधिक शिष्य को गुरु से लाभ होगा, यह तय है।
भाव सुन्दर है तो मंगल ही होगा। शिष्य का भाव रहे कि सदगुरु की सेवा करनी है, उनके आदेशों का पालन करना है, उनके वचनों को जीवन में उतारना है, तो उसका उद्धार होने में कोई संशय नहीं–
पूरे गुरु का सुन उपदेश
पारब्रह्म निकट कर पेख। (आदिग्रन्थ)
ऐसे में सदगुरु की भी सारी चेष्टा यही रहेगी कि उसके शिष्य का सद-भाव अखण्डित रहे, उसकी श्रद्धा जगी रहे, उसका प्रेम उमगा रहे– ऐसा सद-भाव, ऐसी श्रद्धा, ऐसा प्रेम कि उसके भीतर का सारा अहंकार टूटकर बिखर जाये और वह अपने आपको पूरी तरह से गुरु-चरणों में समर्पित कर दे। ऐसा करते ही सत्य की अनुभूति होगी, ज्ञान प्रकट हो जाएगा कि वह जिसके होने का अहंकार पाले बैठा था, उसका तो कोई अस्तित्व ही नहीं है। पतंजलि भी अपने योग-दर्शन में यही कहते हैं कि अपने अहंकार से मुक्त हो जाओ, अपने झूठ के दिवास्वप्न से बाहर आओ, जाग जाओ, क्योंकि–
गुरुरेव परौ धर्मो,
गुरुरेव परा गति:।
जागते ही ज्ञात हो जाएगा कि गुरु ही परम धर्म है, गुरु ही ईश्वर है, गुरु ही देवालय है, गुरु ही परम गति है। गुरु का अर्थ होता है– जिससे अहंकार मिट जाए, जिससे अन्धकार मिट जाए– जिससे ह्रदय निर्मल हो जाए, जिससे जीवन में उजाला हो जाए। उजाला होते ही मार्ग दिखाई देने लगेगा, गति होगी और सदगति भी।
आनंदमार्गी सदगृहस्थ श्री प्रहलाद सिंह चौहान अपनी धर्मपत्नी श्रीमती उमा देवी के साथ।